लेखक: दिशा रमणन
अनुवाद, संपादन एवं टंकण: अरुण कुमार मौर्य एवं प्रशांत पंत
मानव तथा वन्य जीवों के बीच होने वाले किसी भी अंतराकर्षण (interaction) में यदि मानव, वन्यजीव, समाज, आर्थिक क्षेत्र, सांस्कृतिक जीवन, वन्यजीव संरक्षण या पर्यावरण पर कोई नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होता है, तब उसे मानव-वन्यजीव संघर्ष (human-wild life conflict) कहा जाता है.
यह मुख्यतः चार प्रमुख रूप में दिखाई देता है-
भारतीय वन्यजीव संस्था (Wildlife Institute of India), देहरादून, उत्तराखंड के द्वारा एकत्रित राष्ट्रीय वन्यजीव आँकडों के अनुसार, भारत के संपूर्ण भू-भौगोलिक क्षेत्र का केवल 4.99% क्षेत्र ही सुरक्षित क्षेत्र के जाल (protected area network; PAN) में आता है. यद्यपि भारत में वन्यजीव संरक्षण प्रयास के तीव्र किए जाने के कारण कुछ प्रजातियों का संरक्षण सुनिश्चित हुआ है, लेकिन वहीं मानव निवासियों की संख्या में वृद्धि होने के कारण प्राकृतिक अधिवास (natural habitat) लगातार निम्नीकृत (degraded) तथा खंडित (destruction) हुए हैं. ऐसी दशाओं में वन्यजीवों के उपलब्ध स्थान एवं मानव अधिवास के बीच की रेखा धुंधली हो चली है जिसने प्राकृतिक वन्यजीवों को अपने भोजन की खोज हेतु सुरक्षित क्षेत्रों से बाहर आने पर मजबूर किया और इसी कारण मानव-वन्यजीव संघर्ष की स्थितियां उत्पन्न हो गयी. मानव वन्य जीव संघर्ष में बहुधा निर्धन समुदाय के लोग ज्यादा चपेट में आ जाते हैं क्योंकि इन लोगों के क्रियाकलाप मुख्यतः कृषि, पशुपालन या वन्य उत्पाद (Forest produce) निष्कर्षण से जुड़ा रहता है. ये क्रियाकलाप अधिकांशतः वन्यजीवों के अधिवास के समीप पाए जातें हैं जैसे वनक्षेत्र, सुरक्षित क्षेत्र आदि. लेकिन यह पाया गया है कि जहां उत्तरजीविता (survival) और जीवन की आधारभूत आवश्यकताओ की पूर्ति का प्रश्न उत्पन्न होता है तब सामान्यतः संरक्षण (conservation) को प्राथमिकता नहीं दी जाती है.
उत्तरोतर यह पाया गया है कि मानव-वन्यजीव संघर्ष के उपशमन (mitigation) हेतु परंपरागत (conventional) उपाय या तो प्रभावशाली रूप से कारगर साबित नहीं हो रहे या फिर उनके लागत-प्रभाविता (Cost effectiveness) पर प्रश्न चिन्ह है. उदाहरण स्वरुप एक वन्य हाथी के विपुल संज्ञानात्मक गुणों (cognitive abilities) के बारें में वन्य क्षेत्र निवासी या वैज्ञानिक समान रूप से प्रमाणित कर सकते हैं. हाथी जैसा बुद्धिमान जीव उनके नियंत्रण हेतु बहुधा उपयोग किए जाने वाले विधियों, जैसे हाथी गड्ढा विधि या विद्युत् बाड़ों (electric fence) को अक्सर समझ लेते हैं जिससे यह विधियां कारगर संघर्ष उपशमन (conflict mitigation) नहीं कर पाती. इसी कारण मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम या समाप्त करने हेतु रचनात्मक सोच तथा अभिनव प्रयासों के उपयोग की अतिआवश्यकता है जो सभी (मानव, समाज, कृषि क्रियाकलाप तथा वन्यजीव) के लिए लाभकारी परिलक्षित होती प्रतीत हो रही है.
कुछ सामान्य विधियों के उपयोग से न केवल फसल, पशुधन, तथा वन्यजीव क्षति को रोका है बल्कि वनों के समीप रहने वाले समुदायों (communities) के लिए जीवीकोपार्जन की व्यवस्था को सुनिश्चित किया है. उदाहरण स्वरुप वायनाड (Waynad) के संसाधन युक्त एक व्यक्ति ने मधुमक्खियों के उच्च स्वरमान (pitch) की ध्वनि का हाथियों को भगाने के लिए किया. उसने अपने कृषि क्षेत्र को हाथियों से होने वाले नुक्सान को बचाने के लिए एक मीटर लम्बे मधुमक्खी छत्ते के बाड़े का निर्माण किया. जब कभी कोई हाथी बाड़ा से टकराता है तब छत्ते नीचे गिर जातें हैं और मधुमक्खियाँ उच्च स्वरमान की ध्वनि उत्पन्न करती हैं जिससे हाथी भाग जातें हैं. इसके साथ मधुमक्खी से निकले मधु (honey) को बाज़ार में बेचने से जीवन निर्वाह के लिए अतिरिक्त धन भी मिल जाता है.
वहीँ दूसरी ओर, नेपाल के एक भाग में जहां चावल के खेतों में हाथी अक्सर घुस कर क्षति पहुँचाया करते थे तथा वहां विद्युत् बाड़े का अकेला उपयोग लगभग बेकार साबित हो रहा था, तब वहां इस बाड़े के समानांतर गड्ढों का निर्माण किया गया. इन गड्ढों को हाथी पार नहीं कर पाते थे. इन गड्ढों में मतस्य पालन (pisciculture) भी किया गया. इससे चावल की फसलों की सुरक्षा, मानव-वन्यजीव संघर्ष में न्यूनीकरण के साथ-साथ मतस्य पालन से रोजगार तथा अतिरिक्त जीविकोपार्जन का साधन भी मिला.
इस तरह तकनीकी का उपयोग वन्यजीव प्रबंधन करने हेतु किया गया है ताकि रचनात्मकता को वास्तविक हल निकालने में किया जा सके. उदाहरणस्वरुप, खेतों में लगी फसलों पर धावा बोलने वाले जीवसमूह जैसे चीतल, नीलगाय या चिंकारा की गतिविधि रोकने हेतु सौर उर्जा चालित जैवध्वनिक युक्तियों का उपयोग एक महत्त्वपूर्ण चयन के रूप में हल प्रदान कर रहे हैं. ऐसी युक्तियों को खेत में लगा देने से यह यंत्र उनके भक्षकों (predators) के जैसे ध्वनि उत्पन्न कर उन्हें डराते हैं जिससे वे खेत छोड़कर भाग जातें हैं.
किसी एक मानव अधिवासित क्षेत्र में अचानक वन्य जीव के आ जाने से दहशत की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण मानव, वन्यजीव या दोनों को क्षति हो सकती है. माइक्रोचिप (microchip) तथा रेडियोकॉलर (radio collar) जैसी आधुनिक तकनीक इन समस्याओं से निपटने के लिए कारगर हल है. ऐसी युक्तियों को वन्यजीवों में आसानी से (implant) लगाया जा सकता है. ये युक्तियाँ स्थानीय लोगों या वन्यजीव अधिकारियों को तुरंत सन्देश भेजती हैं जब कभी वन्यजीव पूर्वनिर्धारित क्षेत्र को पार कर मानव अधिवास क्षेत्र में प्रवेश के कगार पर पहुँच जाता है. इससे लोगों की सुरक्षा-तैयारी हेतु समय पर अनुक्रिया (response) टीम को बिना देर किए संघर्ष स्थल (conflict spot) तक पहुँचने में आसानी होती है.
ड्रोन तकनीक (Drone Technology) या मानव रहित वायवीय वाहन (Unmanned Aerial Vehicle; UAVs) के द्वारा वन क्षेत्र में तथा उसके आसपास हुए संघर्ष का उपशमन (mitigation) करने में सहायता प्रदान करता है. इस तकनीक के माध्यम से वन अधिकारी न केवल बड़े क्षेत्र पर निगरानी रख सकते हैं वरन साथ ही यह भी पता लगा सकते हैं कि एक वन्य-जीव कब मानव अधिवास क्षेत्र में प्रवेश करने वाला है. इस तकनीकी के उपयोग हेतु भारतीय वन्यजीव संस्थान ने हाल ही में एक निर्णय लिया है. ऐसी तकनीकी संरक्षण के साथ-साथ संघर्ष की स्थिति को भी उपशमित करती है.
हाल में ही संपन्न हुए “एशिया मिनिस्टीरियल कांफ्रेंस आन टाइगर कॉनज़रवेशन” ने टाइगर रेंज देशों को टाइगर (बाघ) जनसँख्या को सन 2020 ई. तक दुगुना करने का लक्ष्य रखा है. निःसंदेह यह लक्ष्य निर्धारण बहुत ही प्रशंसनीय कदम है, लेकिन वर्तमान स्थिति में, निर्वनीकरण (deforestation) की तीव्र दर तथा अधिवास विखंडन (habitat fragmentation) के कारण यह एक दिवास्वप्न ही प्रतीत होता है. यह कार्य एक दीर्घकालिक हल हो सकता है जिसमे वनों की गुणवत्ता तथा निम्नीकृत भू-दृश्य (degraded landscape) को सुधारा जा सके. इस दृष्टिकोण से मानव –वन्यजीव संघर्ष को उपशमित करना एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है जिसके कारण बाघों की जनसँख्या में वृद्धि संभव हो सके.
वर्तमान में मानव-वन्यजीव संघर्ष में तकनीकों का उपयोग अभी नवजात अवस्था (nascent stage) में है. इसका प्रमुख कारण ऐसे तकनीकों की उपलब्धता तथा उनके उच्च मूल्य का होना है. भौतिक बाधाएं तथा जीवपुनर्स्थापन (species reintroduction) जैसी पारंपरिक तकनीक भी असफल होती नज़र आ रही है. वहीं संघर्ष के बाद मौद्रिक क्षतिपूर्ति (monetary compensation)/गाँवों का सुरक्षित क्षेत्र (protected area) से बाहर ले जाने के प्रयास (relocation) कम/अनुपस्थित/असफल है. इस दृष्टिकोण से प्रभावी, रचनात्मक तथा अभिनव युक्तियों (innovative techniques) का उपयोग तर्कसंगत जान पड़ता है, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष को न्यून/समाप्त कर वन्यजीव संरक्षण में सफल योगदान दिया जा सके.
केस अध्ययन (Case Study):
अन्नामलाई पर्वत क्षेत्र (तमिलनाडु) में लगभग 220 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कभी हरे-भरे वर्षावन (rainforest) हुआ करते थे. लेकिन वर्तमान में निर्वनीकरण (deforestation) द्वारा वहां बागानी कृषि (plantation crop) की जाने लगी. यह बागानी क्षेत्र वर्तमान में लगभग 70,000 मजदूरों का कार्य एवं अधिवास क्षेत्र है. पहले वन्य हाथी इन क्षेत्रों को कॉरिडोर के रूप में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने के लिए उपयोग किया करते थे. वे अभी भी इन्हीं रास्तों से जाने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि उन्होंने अपने उद्धविकास में यही रास्ता सीखा है. इसके कारण अक्सर इन क्षेत्रों में मानव-हाथी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. इस समस्या से मुक्ति पाने के लिए नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन (एन.सी.एफ) के डॉ. आनंद कुमार ने एक बेहतरीन पूर्व-चेतावनी विधि (pre-warning method) का विकास किया है जिसमे एलीफैंट इन्फ़र्मेशन नेटवर्क (ई.आई.एन) का नाम दिया गया है. यह नेटवर्क लोगों को आस-पास हाथी उपस्थित होने पर आगाह कर देता है जिससे लोग वैकल्पिक रास्ते का चयन कर लेते हैं ताकि मानव-वन्यजीव संघर्ष की स्थिति उत्पन्न न हो सके.
चित्र 1: अन्नामलाई क्षेत्र (तमिलनाडु) में मुक्त विचरण करते हुए वन्य हाथी परिवार. (चित्र साभार: डॉ. अरुण कुमार मौर्य)
इस ई.आई.एन टीम में स्थानीय समुदाय, चाय बागान कंपनियां तथा कामगार शामिल है. यह लोग लगातार वन विभाग तथा स्थानीय सूचकों (local informers) के संपर्क में रहते है. हाथियों के देखे जाने पर एक बड़ी मात्र में टेक्स्ट संदेशों (text messages) को भेज दिया जाता है, जिसमे उस चाय बागान के स्थान की जानकारी होती है जिसमे हाथियों को देखा गया है.
इसी नेटवर्क के दूसरे घटक के रूप में ऊँचे स्थानों पर चमकने वाली प्रकाशबिंदु (flashing light) को स्थापित किया गया है जो हाथियों के गमन पर रात में निगरानी रखतें है. इनका संचालन मोबाइल फोन द्वारा किया जाता है. प्रत्येक प्रकाशबिंदु का संचालन दो व्यक्ति करते हैं. इसमें तीन बार मोबाइल पर घंटी बजने से प्रकाशबिंदु को “चालू” (switch on) तथा सात बार घंटी बजने से प्रकाशबिंदु को बंद (switch off) किया जाता है. इसके साथ ही टेक्स्ट संदेशों को भी भेज दिया जाता है.
इस नवाचार प्रयोग से प्रोत्साहित होकर तमिलनाडु वन विभाग ने एक “आपदा उपशमन केंद्र” (Disaster Mitigation Centre) की इस क्षेत्र में स्थापना की है, जो ध्वनि चेतावनी तंत्र के आधार पर कार्य करता है. यह युक्ति तब ज्यादा प्रभावशाली है, जब धुंध तथा मौसम खराब होने के कारण प्रकाशबिंदु तंत्र कार्य नहीं कर पाता. इसके साथ ही बी.एस.एन.एल का एक टोल फ्री नंबर भी संचालित किया जा रहा है. इस सफल प्रयास हेतु सन 2015 ई. में इस प्रोजेक्ट को “ग्रीन ऑस्कर” (Green Oscar) या व्हिट्ले अवार्ड (Whitley award) दिया गया.
Bibliography:
Arun
May 5, 2016 at 3:18 pm
Nice & informative article Disha .
Vaibhav Morwal
May 6, 2016 at 5:59 am
Very informative and insightful
Amrita
May 7, 2016 at 8:28 am
Very thoroughly researched and well written. A great article!
Vineet Singh
May 13, 2016 at 11:10 am
Very nice and interesting subject