दिशा रमणन
एक अनुमान के अनुसार विश्व की 70 प्रतिशत फसलें और निम्न उष्णकटिबन्धीय वर्षावनों में मिलने वाले 98 प्रतिशत वृक्ष, परागण सम्पन्न होने के लिए, जन्तुओं, विशेषतः कीटो पर निर्भर करते है। अतः इस तथ्य को समझने में कोई कठिनाई नहीं है कि परागण सेवाओं में किसी प्रकार सीमा तक ह्रास खाद्यान्य उत्पादन और जैव-विविधता के रख-रखाव को बड़ी सीमा तक प्रभावित करेगा। भारत में, वन्य परागक (pollinators) कई फसलों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते है जैसे कुछ दालें, सूरजमुखी, इलायची, कॉफ़ी, काजू, नारंगी-कुल की प्रजातियों, तथा आम एवं सेब आदि में। हमारी अधिकांश शस्य फसलों के लिए, सबसे अधिक महत्वपूर्ण परागक हैं मधु मक्खियों की हजारों प्रजातियां।
ऐसी मान्यता है कि वर्ष 2015 में ही विश्वभर में प्राणियों/जंतुओं द्वारा परागित फसलों का आर्थिक मूल्य $ 2350 लाख से $ 5770 लाख के बीच था। परागकों की इस सेवा का वन्य जैव-विविधता एवं विस्तृत पारिस्थितिक स्थायित्व में योगदान तो अनुमान से परे है।
परागण, परागक एवं पादप-परागक अन्योन्य-क्रियाएं:
सरल शब्दों में परागण वह प्रक्रिया है जिसमें पराग कोष (anther) से निकले परागकण पुष्प के वत्र्तिकाग्र (stigma) तक पहुंचते हैं। परागण दो प्रकार का होता है- स्व-परागण (self-pollination) एवं पर-परागण (cross pollination) वस्तुतः पर-परागण की सफलता परागण के कारकों पर निर्भर करती है जिन्हें संवाहक (vectors) कहते हैं, पर निर्भर करती है। संवाहक अजैव (abiotic) हो सकते है जैसे वायु, जल आदि अथवा जैविक (biotic) जैसे मधुमक्खियां, तितलियां, अन्य कीट, चमगादड़, पक्षी, व कुछ स्तनपोषी आदि। स्व-परागण दर्शाने वाली पुष्पी प्रजातियां प्राणि परागकों की अनुपस्थिति में भी जनन कर सकती है लेकिन इस प्रकार का जनन आनुवंशिक विविधता का ह्रास करता है। अतः पर-परागण और आनुवंशिक, विविधता बढ़ाने के लिए, पादपों ने विविध प्रकारकी लैंगिक युक्तियां (strategies) विकसित कर ली हैं जैसे पुष्पों एवं दलपुटों का आकार संरचना, गंध और मकरंद (nectar) की उपस्थिति जिससे परागकों को आकर्षित किया जा सके और पराग को एक ही प्रजाति के एक पुष्प से दूसरें तक पहुंचाया जा सके।
यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि पुष्पी पादपों और कीटों की विविधता आपस में जटिल रूप से जुड़े है। ध्यातव्य है कि 900-1300 लाख वर्ष पूर्व होने वाले पुष्पी पादपों के तीव्र विविधीकरण में पादप-परागकों की आपसी सहभागिता की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है। यह अन्योन्य-संबन्ध अत्यंत महत्वपूर्ण रहे हैं क्योंकि वर्तमान में पृथ्वी पर विद्यमान पुष्पी पादप परागण सेवाएं जन्तुओं से ही प्राप्त करते हैं। ज्ञातव्य है कि इस क्रम में जन्तुओं को प्राप्त होने वाले लाभ विविध प्रकार के है। प्रथमतः तो जन्तु परागकों को परागण क्रिया में पराग-कण अथवा मकरंद भोजन के रूप में प्राप्त होते है साथ ही कुछ प्रकार की मधुमक्कियां पुष्पों के मोमों एवं रेजिनों का उपयोग अपने छत्तों के निर्माण में करते हैं। ध्यातव्य है कि परागकों का एक ऐसा बड़ा परास है जिसकी पुष्पों मास दैनिक एवं ऋतु-संबंधी मांग प्राथमिकता अत्यंत विविध है।
परागक समस्याः
बीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही परागकों की संख्या में सतत कमी होती आ रही है जिससे मानव के लिए खाद्यान्न उत्पादन की बढ़ोत्तरी तो चिन्ता का विषय बनी ही है कई प्रकार के परितन्त्रों (ecosystems) की पारिस्थितिकी भी बुरी तरह प्रभावित हुई है। नवीन शोधो से पता चला है कि यदि परागकों की जनसंख्या में कमी के कारण एक क्रांतिक सीमा से अधिक प्रभावी हो जाएगा तो इनकी संख्या यकायक और सामूहिक रूप से घट जाएगी।
परागकों की संख्या में ह्रास के कारकः
अधिकांश वे कारक जो परागकों की जनसंख्या के लिए गम्भीर संकट उत्पन्न करते हैं, मानव के क्रिया-कलापों के ही प्रतिफल हैं। इनमें से कुछ का वर्णन नीचे किया जा रहा है।
कृषि की सघनता के फलस्वरूप वन्य परागकों की बहुलता और विविधता में कमी आती है और इनके परिणाम के रूप में इनके द्वारा फसलों को प्रदान की जाने वाली पारितंत्रीय सेवाओं की गुणवत्ता भी घट जाती है। कुछ दृष्टिगत प्रभाव हैः
क) प्राकृतिक एवं अर्ध-प्राकृतिक परागकों के आवासों का ह्रास अथवा विखंडनः
इस श्रेणी में कृषिवानिकी तंत्र, घास-स्थल, क्षुपीय स्थल, वन आदि आते हैं। यह वन्य परागको के न्यूनीकरण (depletion) का एक प्रमुख कारण ठहराया जाता है।
ख) विशाल स्तर पर एकल फसल कृषि (monoculture): हाल ही के वर्षों में विशाल कृषित/बागानी भूखंडों में मात्र एक ही फसल उगाने का ऐसा प्रचलन हुआ है जिसमें इनके आंतरिक और चारों ओर के आवरण क्षेत्र में जैव-विविधता नगण्य ही है। इसके कारण यह परागकों के लिए पारिस्थितिकी उपयुक्त आवास नहीं रह पाते न तो स्थानिक (spatial) और न सम-सामयिक (temporal) दृष्टि से।
ग) पीड़क/कीट नाशियों का अत्यधिक उपयोगः यह प्रक्रिया परागकों को विभिन्न रूपों में प्रभावित करती है अतः इसे विस्तारपूर्वक नीचे वर्णित किया जा रहा है।
(i) कीटनाशकः अपनो अंतर्निहित कार्य-विधा के कारण कीट नाशक परागकों की संख्या में कमी और उनकी मृत्यु के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक हैं जहां एक ओर इनके पर्याप्त ऊँची खुराक के उपयोग से फसलों के पीड़क (pest) समाप्त हो जाते हैं वहीं अनजाने में परागको समेत लाभकारी कीटों का भी सफाया हो जाता है। अन्य प्रभाव हैं।
(ii) कीटों का युवावस्था (adulthood) तक पहुंचने में विलम्ब ।
(iii) कीटों की गति (mobility) और आपसी संवाद स्थापित करने की क्षमता में कमी।
(iv) स्थल की खोज और उस तक मार्ग निर्धारण कर पहुंचने की क्षमता में कमी।
(v) मधुमक्खियों की घ्राण शक्ति, सीखने की क्षमता और स्मृति इस सीमा तक प्रभावित हो जाती है कि इन्हें अपनी दक्ष और सफल, पुष्पों तक पहुंचकर पराग एकत्रण सम्पन्न यात्राओं का भी ध्यान नहीं रहता।
पृथ्वी पर दृष्टव्य जलवायु परिवर्तनों में तापक्रम में वृद्धि, अनिश्चित वर्षा और चरम मौसम ऐसी घटनाएँ हैं जो परागकों की संख्या को निम्न दो प्रकारों से प्रभावित करती हैं:
(क) प्रजातीय स्तर पर: जलवायु परिवर्तन की एक सर्वमान्य परिणति है विलोपन (extinction) की बढ़ी दर स्पष्ट है कि इससे परागकों की जनसंख्याओं पर भी विपरीत असर पडे़गा।
(ख) अनोन्य-क्रिया स्तर परः जलवायु परिवर्तन का एक दूरगाभी प्रभाव है, अनेक पुष्पी प्रजातियों की पुष्पण तिथि और प्रणाली में परिवर्तन। पिछले दिनों किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि 17 से 50 प्रतिशत परागक जातियां जलवायु परिवर्तन के कारण भोजन की कमी का अनुभव करेंगी क्योंकि आने वाले दिनों में अनेक नयी पुष्पी पादप जातियों की पुष्पण अवधि और प्रणाली भी परिवर्तन के घेरे में आ जाएंगें।
(1). शोध की आवश्यकताः जन मानस ने हाल ही के वर्षो में अनुभव किया है कि परागकों की संख्या का निरंतर ह्रास हो रहा है, भारत जैसे देश में जहां परागकों की संख्या में कमी के परिणामस्वरूप प्रतिवर्ष लाखों रूपये की उत्पादकता घट जाती है, शोध पर व्यय लगभग नगण्य है, जिसे बढ़ाए जाने की तत्काल आवश्यकता है।
(2). वैश्विक स्तर पर कृषि में परिवर्तनः
परागकों को सर्वाधिक हानि कीटनाशकों के अप्रबंधित उपयोग से हो रही है अतः इनके स्थान पर जैविक पीड़क नाशकों का प्रयोग किया जाना चाहिए। साथ ही एकल कृषि और औद्योगिक कृषि के स्थान पर जैविक कृषि (organic farming) अपनायी जानी चाहिए।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पृथ्वी पर जीवन के संवेदनशील जाल को बनाए रखने के लिए कुछ पारितंत्रीय अभिक्रियाएं परम आवश्यक हैं परागण इनमें से एक हैं। अतः वैश्विक खाद्य सुरक्षा एवं जैव विविधता संरक्षण के क्रम में परागकों का आरक्षण किए जाने की नितांत आवश्यकता है।
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